नजरिया अपना-अपना
नजरिया अपना-अपना
पूर्णिमा की रात
स्वर्णिम किरणें चाँद की
करोड़ों वर्ष में एक जैसी,
क्या कोई मिलावट नज़र आती है
प्रतिदिन सूर्योदय की छवि का नज़ारा
देता है असीमित ऊर्जा
मानव को इस प्रकृति को पर्यावरण को
करोड़ों वर्षों से एक ही तरह
समय बद्ध कार्यक्रम
क्या कोई मिलावट नज़र आती है
मानव को पैदा किया
मानविया दृष्टिकोण दिया
असीमित प्यार दिया, मानव से मानव को
क्या कोई मिलावट नज़र आती है
मिलावट का पहलू प्रारम्भ होता है
संस्कारों से
क्या हम चल पा रहें हैं उन संस्कारों पर
जो हमने अपने पूर्वजों से ग्रहण किये
क्या आप जानते है की हमारे पूर्वज कौन थे
हमारे वंशज कौन है
यदि नहीं ज्ञान इतना
तो समझ लो की हमारे पूर्वज
रहे होंगे सूरज व चाँद जैसे
जिसमे कितना भी ज़हर घोला हो मानव
वह सदैव प्रदान करते है एक सी तपिश
व एक सी शीतलता
तो क्यों छोड़े हमने उनके संस्कार,
कहाँ से आई मिलावट
कहाँ से आया भ्रष्टाचार
समय से क्यों नहीं उठाया कदम आज माथा क्यों ठोंक रहे हो
और कब तक ठोंकते रहोगे
क्या अंत है कहीं इसका
शर्म करो मानवीय संवेदनाओं को आहत मत होने दो
क्यों की जितना खोदोगे
दागदार होते जाओगे
पहले देखो कितने खुनी छींटे हैं मेरे दामन में
चर्बी क्या चीज़
कितने इंसानों का खून पीया है मैंने,
क्या करने आया हूँ
क्या कर रहा हूँ
क्या मेरे करने से मानव का कल्याण है
या मानव कल्याण की आड़ में मेरा कोई स्वार्थ है,
शिक्षा जगत से जुड़े लोगों से
एक प्रश्न है विकराल मेरे
क्या जो मिलावट आज शिक्षा जगत में है
वह चर्बी काण्ड से कम है
जब होगा खुलासा उसका
तो क्या बच पायेगा कोई जीवन उससे
आहत हुए बिना
शिक्षा जगत के बड़े-बड़े हौन्दों पर आसीन मानव
सोचे ज़रा इस सच पर की
क्या शिक्षा का व्यवसायीकरण उचित है,
यदि उचित है
तो क्यों नहीं बाँधी जाती पाड़ इसकी
धन कमाने की भूख में मदहोश है
हर व्यक्ति
अच्छे-बुरे का ज्ञान होने पर भी
जीवित मक्खी निगल रहा है वह
मात्र लोभ-लालच व
अपार धन कमाने की इच्छा में
किन्तु वह धन किसके लिए
जिनके लिए कमा रहे हो धन
जब वे ही न रहेंगे इस धरती पर
चर्बी कांड हो या अनैतिकता का कोई कुचक्र
सभी में दोषी है मानव
जो इस कलियुग में महामानव बनाने की होड़ में है
महामानव बनना है तो
सीख लो अपने पूर्वजो से,
जिन्होंने पैदा किया महात्मा बुद्ध
स्वामी विवेकानंद जैसे महामानव इस धरती पर
यदि बीड़ा उठाना है
इस देश को समृद्धिशाली बनाने का
तो खुद को उठाना होगा नैतिकता के चरम बिन्दु तक
और यह तब तक संभव नहीं है
जब तक नष्ट नहीं करेंगे
अपने आत्मिक स्वरुप से भ्रष्टाचार,
अनैतिकता की जननी है भ्रष्टाचार
हर काण्ड की जड़ है लोभ व भ्रष्टाचार
मानवीय संवेदनाओं से मत खेलो
चहूँ और आग ही आग है
जल जायेंगे उसी तरह
जैसे अभिमन्यु फँस गए थे चक्रव्यूह में
आओ बदलाव लायें अपनी कार्यशैली में
कुछ न हासिल होगा
मानवीय संवेदनाओं की होली जलाने से
जलाना है तो नष्ट करें अपनी बुरी आदतों को
रोकें आने वाली पीड़ी को
फास्ट फ़ूड व विविध अनैतिक पकवानों से
लगाम लगा दे जबान को की
स्वाद स्वाद में नष्ट न करें अपना जीवन
मिलावट और भ्रष्टाचार के इस दौर में,
जीवन कम स्वाद अधिक है
स्वाद से जीना है जीवन
तो भ्रष्टाचार छोड़ना होगा
रोकना है षड्यंत्रों को
तो खुद को रोकना होगा
षड्यंत्रों में सम्मिलित होने से
एक उंगली उठाने पर तीन उंगली अपनी ओर उठती है
यह सोच लो की मानवीय धरा पर
अमानवीय बोझा भारी है
आवश्यकता है चन्द ऐसे लोगों की
जो बचा सकें इस मानवीय धरा को
असीमित अमानवीय बोझ से
आओ आगे बढें
फूंके अनैतिकता में नैतिकता का शंखनाद
संकल्प ले दूर करने का भ्रष्टाचार खून से
अन्यथा खडा हो जाएगा यह महादैत्य
रक्तबीज के रूप में
फिर करोगे पूजा अर्चना
उस महादैत्य को नष्ट करने के लिए
जगत जननी माँ की
और माँ अपने भक्तों की रक्षा के लिए
नष्ट तो करेंगी उस महादैत्य,
रक्तबीज को
किन्तु सोचो कौन है वह रक्तबीज,
जिसके मरने के बाद
कौन जीवित रहेगा इस धराधाम पर
तलाश करो दोषी को
दोषी कौन है अपने ह्रदय से पूछो
जवाब मिलेगा- "मैं",
तो फिर देर किस बात की
नष्ट कर डालो अपने ह्रदय से
भ्रष्टाचार रुपी "रक्तबीज" को
बचा लो इस धरा को,
अमानवीय बोझ से.
बचा लो इस धरा को,
अमानवीय बोझ से !!